कृष्ण अवतार में दी भगवद्गीता की सीख
कृष्ण अवतार
गीता के एक श्लोक में प्रभु श्री विष्णु ने द्वापर युग में श्री कृष्ण अवतार का रहस्य बताया है। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से इस श्लोक में कहा था, “हे पार्थ! संसार में जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ जाता है, तब धर्म की पुर्नस्थापना हेतू, मैं इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूं।”
पौराणिक कथाओं के अनुसार जब द्वापर युग में क्षत्रियों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी और वह अपने बल के अहंकार में देवताओं को भी ललकारने लगे थे, तब प्रभु ने उनके इस अहंकार को खत्म करने के लिए माधव का अवतार लिया। इसके अलावा भगवान विष्णु के बैकुंठ के द्वारपालों, जय और विजय को उनके जीवन चक्र से मुक्ति दिलाने के लिए भी प्रभु ने अपना आठवां अवतार श्री कृष्ण के रूप में लिया था।
प्रभु श्री कृष्ण के अवतार में कईयों को मुक्ति दिलाने के साथ प्रेम, मित्रता और कर्म की शिक्षा दी है। उन्होंने इस रूप में राधा से प्रेम कर प्रेम बंधन को संसार में सबसे अहम माना तो वहीं महाभारत में कर्म के आधार पर लोगों श्रेष्ठ होने का मार्ग बताया।
उन्होंने महाभारत के समय अर्जुन का सारथी बन गीता का ज्ञान दिया। प्रभु ने कर्म के मार्ग पर चल धर्म की रक्षा को सर्वश्रेष्ठ बताया है। महाभारत में प्रभु ने एक सारथी का दायित्व निभा धर्म की रक्षा का उपदेश दिया, वहीं सुदामा से मित्रता निभा उन्होंने मित्र धर्म को सभी पारिवारिक बंधनों से ऊपर रखा।
कथानुसार, जब जय और विजय को ऋषि सनकादि से यह अभिशाप मिला कि अगले तीन जन्मों तक उन्हें राक्षस कुल में जन्म लेना होगा, तब उन दोनों ने ऋषि से मोक्ष प्राप्ति का पथ बताने का आग्रह किया था। सनकादि ने तब उन्हें कहा था कि उनके मोक्ष प्राप्ति के लिए स्वयं भगवान विष्णु पृथ्वी पर अवतरित होंगे।
इसके बाद, अपने पहले जन्म में हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष, दूसरे जन्म में रावण और कुंभकर्ण बनने के पश्चात, तीसरे जन्म में उन दोनों ने शिशुपाल और कंस के रूप में जन्म लिया था। तब नारायण ने भगवान कृष्ण के रूप में अवतार लेकर उन दोनों का वध करते हुए उन्हें जन्म चक्र से मुक्ति दिलाई थी।
मान्यता यह भी है कि भगवान श्रीकृष्ण के परमशत्रु कंस पूर्वजन्म में हिरण्यकश्यप थे। वहीं भागवत पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने स्वयं जय और विजय को शाप से मुक्ति के लिए वरदान दिया था कि जब भी तुम लोग राक्षस बन कर जन्म लोगे, तो तुम्हारी मृत्यु मेरे ही हाथो होगी और तुम्हारा उद्धार होगा।
अब जैसा की हम सब जानते हैं कि मथुरा के राजा दुराचारी कंस ने धरती पर जन्म के बाद से ही धरती पर हाहाकार मचा रखा था। उसके अत्याचार पूर्ण शासन का कष्ट, प्रजा सहित साधु-संत भी भोग रहे थे। दूसरी ओर, शिशुपाल जो पूर्वजन्म में हिरण्याक्ष था, वह भी धरती पर आ चुका था। इन दोनों को शाप के अनुसार, जीवन से मुक्ति प्रदान करने के लिए, भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया था।
एक अन्य मान्यता के अनुसार द्वापर युग में धरती महान योद्धाओं की शक्ति से दहल रही थी। इसके साथ ही, जनसंख्या का भार भी काफी हो गया था। अगर उस युग के योद्धाओं का अंत नहीं होता, तो धरती पर शक्ति का बहुत असंतुलन दिखाई देने लगता। अतः इसी शक्ति के संतुलन और नए युग के आरंभ के लिए श्री कृष्ण ने अपना अवतार धारण किया।
श्री कृष्ण अवतार से एक और रोचक कथा जुड़ी हुई है, जब स्वयं धरती ने प्रभु से परित्राण का अनुग्रह किया और श्री हरि ने अपना आठवां अवतार लिया था। इस कथा के अनुसार द्वापर युग में जब पृथ्वी पर पाप बहुत बढ़ने लगा और असुरों के इस अत्याचार से स्वयं धरती माता भी नहीं बच पा रही थी। तब उन्होंने सहसा एक गाय का रूप धारण किया और अपने उद्धार की आशा लेकर, प्रजापति ब्रह्मा के पास पहुंची। उनकी सारी व्यथा सुनने के बाद ब्रह्मा जी ने उन्हें अपने साथ भगवान विष्णु की शरण में चलने को कहा।
सभी देवताओं और पृथ्वी माता के साथ ब्रह्मा जी जब हरि धाम पहुंचे तो देखा कि भगवन निद्रा में लीन हैं। तब सभी ने उनकी स्तुति करना शुरू किया और इसके प्रभाव से उन्होंने अपनी आंखें खोली और ब्रह्मा जी से आने का कारण पूछा। तब धरती माता आगे आई और उन्होंने कहा, “हे प्रभु! मैं इस संसार में हो रहे पाप और अत्याचारों के बोझ तले दबी जा रहीं हूं। कृपया आप ही अब मेरा उद्धार करो भगवन!”
पृथ्वी माता की बातें सुनकर भगवान विष्णु ने उत्तर दिया, हे धरती! तुम चिंतित ना हो, मैं वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से अपना आठवां अवतार लूंगा और तुम्हें इन अत्याचारों से मुक्त कराउंगा।”
इसके साथ ही श्री हरि ने बाकी देवताओं से कहा, “तुम लोग सभी ब्रज भूमि जाओ और ग्वाल वंश में अपना शरीर धारण कर लो और मेरे आने की प्रतीक्षा करो।” इसके बाद प्रभु ने वसुदेव के आठवें पुत्र के रूप में जन्म लिया और इस धरती को कंस, चाणूर, पूतना, कालिया और ऐसे कई अत्याचारी असुरों से मुक्ति दिलाई।
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