Sunday, 16 October 2022

दीपावली पूजा मुहूर्त

हरि ॐ,

एस्ट्रोटेक लैब की तरफ से दीपावली के पावन अवसर पर आप सभी को बहुत शुभकामनाएं l
23 अक्टूबर को धनतेरस शुरू हो जाएगा। 24 अक्टूबर को  नरक चतुदर्शी होगी। इसी दिन दीपावली होगी। 26 को गोवर्धन पूजा और 27 को भाई दूज होगी। 22 अक्टूबर को शाम 6:02 से धनतेरस की खरीदारी का दौर शुरू हो जाएगा। 23 अक्टूबर शाम 6:03 बजे तक खरीदारी का मान रहेगा। ऐसे में उदया तिथि के अनुसार, 23 अक्टूबर को धनतेरस मनाया जाएगा।

23 अक्टूबर को प्रदोष व्रत होगा और शनि भी मार्गी हो रहे हैं जो कई राशियों के जीवन में धन, संपत्ति, समृद्धि लाएंगे। इस वर्ष कन्या राशि और हस्त नक्षत्र का संयोग मिल रहा है। इस दिन मां लक्ष्मी, धनाध्यक्ष कुबेर की पूजा होती है व धनवंतरि जयंती भी होती है। इस दिन आयुर्वेद के जन्मदाता भगवान धनवंतरि का समुद्र मंथन से प्राकट्य हुआ था। इस दिन भगवान धनवंतरि की पूजा की जाती है। उनसे आरोग्य की कामना की जाती है।


इस दिन यमदीप दान किया जाता है। सायंकाल आटे या मिट्टी के दीपक में तेल डालकर चार बत्तियां जलाकर मुख्य द्वार पर रखा जाता है। इस दीपदान से असामयिक मृत्यु का भय समाप्त होता है। धनतेरस पर शुभ मुहूर्त में खरीदारी करने से धन वर्षा होगी। इस दिन श्रीगणेश-लक्ष्मी खरीदना, बर्तन, सोना.चांदी, आभूषण, वाहन खरीदना मिट्टी के दीपक या घर का सामान खरीदना बेहद शुभ माना जाता है। खरीदारी करने इस वर्ष धनतरेस का शुभ मुहूर्त

चौघड़ियानुसार लाभ सुबह नौ से 10:25 बजे तक, अमृत काल में सुबह 10:25 से 11:50 बजे तक, शुभ दिन दोपहर 01:16 बजे से 02:41 बजे तक और शाम 05:31 बजे से 07:06 बजे तक और अमृत सांयकाल में शाम 07:06 से शाम 08:41 बजे तक खरीदारी की सकती है।अभिजीत मुहूर्त का रखें ध्यान

अभिजीत मुहूर्त सुबह 11ः28 बजे से 12ः13 बजे तक, प्रदोष काल शाम 05ः31 बजे से रात 08:03 बजे तक, (शुभ) वृषभ लग्न शाम 06:45 बजे से 08 :42 बजे तक (अतिशुभ) है। धनतेरस में पूजा का शुभ मुहूर्त प्रदोष काल शाम 05ः31 बजे से 8:03 बजे तक, वृषभ लग्न शाम 6:45 बजे से 8:42 बजे तक है।

आपको और आपके परिवार को एस्ट्रोटेक लैब की तरफ से दीपावली की बहुत शुभकामनाएं l
आपका जीवन सुखमय हो।

शुभम् भवतु,
आपका ज्योतिष,
डॉ. सुहास रोकड़े
www.astrotechlab.com

Monday, 11 July 2022

कलियुग का संहारक कल्कि अवतार

कलियुग का संहारक कल्कि अवतार

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कल्कि जगताधार भगवान श्री हरि के अंतिम एवं भावी अवतार हैं। कल्कि अवतार जिनका आविर्भाव कलयुग एवं सतयुग के संधिकाल में होगा। पौराणिक कथा के अनुसार जब कलयुग में पाप की सारी सीमाओं का उल्लंघन हो जाएगा। वहीं समग्र विश्व में दुष्टों का विचरण भी अत्यंत हो जाएगा, जब लोग इस युग में धर्म का परिपालन करना छोड़ देंगे, तब इन दुष्टों का संहार करने के लिए प्रभु नारायण अपना आखिरी अवतार लेंगे। प्रभु के दसवें अवतार की कथा विभिन्न पुराणों में निहित है।

कल्कि पुराण में भी इस बात का उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार भगवान विष्णु अपना कल्कि अवतार लेकर आएंगे और इस पृथ्वी से दुष्टों का दमन करके एक बार फिर सतयुग की स्थापना करेंगे। इस पुराण में सबसे पहले मार्कन्डेय और शूकरदेव का वार्तालाप निहित है, जिसमें वह कहते हैं कि कलयुग का प्रारंभ हो चुका है और अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों से तंग आकर धरती माता नारायण के शरण में पहुंची हुईं हैं।

वह जैसे ही श्री हरि के सम्मुख जाकर उनसे अपनी व्यथा का वृत्तांत कहती है, तब भगवान उनसे अपने कल्कि अवतार की बात कहकर उन्हें आश्वासित करते हैं। तत्पश्चात भगवान विष्णु के अवतार के रूप में ही, भारत के एक राज्य उत्तर प्रदेश के सम्भल गांव में कल्कि भगवान के जन्म की बात की गई है।

उसके आगे, इसमें कल्कि भगवान की दैवीय गतिविधियों का अत्यंत सुंदर वर्णन किया गया है। इसमें कहा गया है कि कालांतर में भगवान कल्कि अपने विवाह के उद्देश्य से सिंहल द्वीप जाएंगे और वहां उनका परिचय जलक्रीड़ा के दौरान, राजकुमारी पद्मावती से होगा। राजकुमारी पद्मावती का विवाह भी कल्कि प्रभु के साथ होना ही निश्चित है। उनका अन्य कोई भी पात्र कदापि नहीं होगा।विवाह के पश्चात भगवान, देवी पद्मावती को लेकर सम्भल पहुंचेंगे और भगवान विश्वकर्मा इस नगरी को एक दिव्य सुंदर नगरी में परिणत करेंगे।

कल्कि पुराण के अलावा प्रभु के इस भावी अवतार का वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण में भी मौजूद है। महापुराण के बारहवें स्कन्द के अनुसार संभल ग्राम में विष्णुयश नाम के एक ब्राह्मण का वास होगा और उनका हृदय, अत्यंत ही उदार होगा।

विष्णुयश के हृदय में भगवद भक्ति पूर्ण होगी। उन्हीं के घर भगवान श्री विष्णु के कल्कि अवतार का जन्म होगा। अत्यंत अल्पायु में ही वेदों का पाठ कर लेने पर वह महापंडित हो जाएंगे और समस्त संसार में उनका महिमा मंडन होगा। कल्कि भगवान के गुरु परशुराम होंगे, जो अस्त्र विद्या और अन्य कई शिक्षा देते हुए, उन्हें भगवान शिव की उपासना करने को कहेंगे।

कल्कि भगवान का चित्रण इस प्रकार किया गया है कि भगवान अपने देवदत्त नामक घोड़े पर बैठे, हाथ में तलवार लिए असुरों का संहार करेंगे। कल्कि पुराण के इन तथ्यों से इतना तो स्पष्ट है कि भगवान श्री विष्णु के कल्कि अवतार, युगानुसार आत्मतत्व को प्राप्त कर काल और युग के परिवर्तन का कार्य करेंगे।

बुद्ध अवतार

बुद्ध अवतार में दिया अष्ठांगिक मार्ग का ज्ञान

बुद्ध अवतार

‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि।’ भगवान बुद्ध के शरण में स्वयं को समर्पित करने की सीख देता यह कथन सम्पूर्ण बौद्ध धर्म का मूल सार है। समग्र विश्व को प्रेम एवं शांति की शिक्षा प्रदान करने वाले भगवान बुद्ध, स्वयं प्रभु श्री हरि के नौवें अवतार हैं। कहा जाता है कि श्री कृष्ण अवतार के पश्चात जब एक बार फिर संसार में हिंसा और अधर्म का प्रकोप बढ़ने लगा तब भगवान विष्णु ने बुद्ध का अवतार लेकर इस जगत को अहिंसा व शांति का दिव्य ज्ञान दिया।

कथानुसार एक समय पृथ्वी पर दैत्यों की शक्ति इतनी बढ़ गई थी स्वयं देवताओं को भी उनका भय होने लगा था। जब उन अत्याचारी असुरों ने देवराज इंद्र से राज्य की लालसा करते हुए पूछा कि हमारा साम्राज्य स्थिर रहे और हमसे यह कोई ना छीन सके इसका कोई उपाय बताएं। तब इंद्र ने उन्हें बताया कि सुस्थिर शासन के लिए वेदविहित आचरण करते हुए यज्ञ का आयोजन करना आवश्यक है। इंद्र की बात मानकर दैत्यों ने तब वैदिक आचरण के साथ महायज्ञ का आयोजन करना आरंभ कर दिया।

इसके फलस्वरूप दैत्यों की शक्ति और क्षमता में वृद्धि होने लगी, जो समस्त संसार के लिए बिल्कुल भी मंगलप्रद नहीं थी। असुरों की इन कारसाजियों को देखते हुए चिंतित देवगण तब भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे और उनसे इसका उपाय बताने को कहा। इसके बाद ही भगवान श्री विष्णु ने बुद्ध का अवतार धारण करते हुए उन दैत्यों की तरफ प्रस्थान किया। उनके हाथ में एक मार्जनी थी, जिससे वह मार्ग को बुहारते हुए चलते जा रहे थे।

वहीं जैसे ही बुद्ध दैत्यों के पास पहुंचे, तो दैत्यों ने सर्वप्रथम उनके आने का कारण पूछा और तब बुद्ध ने उन्हें यज्ञ ना करने का उपदेश दिया, क्योंकि यज्ञ करने से जीव हिंसा होती है। इसके साथ ही यज्ञ की अग्नि में ना जाने कितने निष्पाप प्राणी जल कर भस्म हो जाते हैं। भगवान बुद्ध के दिए उपदेशों से सभी दैत्यगण अत्यंत प्रभावित हुए और उन्होंने यज्ञ करना बंद कर दिया, जिससे उनकी शक्तियां भी कम होने लगी और इस मौके का लाभ उठाते हुए देवताओं ने अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया।

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भगवान बुद्ध का जन्म 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में हुआ था। बचपन में गौतम बुद्ध का नाम सिद्धार्थ था, जिनके जन्म के पश्चात उनका लालन पालन महारानी गौतमी ने किया था। सिद्धार्थ के पिता शुद्धोधन, इक्षवाकु वंश के राजा थे। इसी वंश में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने भी जन्म लिया था, जो विष्णु के सातवें अवतार भी हैं।

सिद्धार्थ बचपन से ही बड़े ही शांतिप्रिय बालक थे और एक दिन सहसा इस संसार से विरक्त होकर ब्रह्मतत्व की प्राप्ति हेतु उन्होंने अपना घर-परिवार सब त्याग दिया। घूमते-घूमते सिद्धार्थ राजगीर पहुंचे और वहां उनका साक्षात आलर कलाम से हुआ जो संन्यास काल में उनके प्रथम शिक्षक भी बने थे। कालांतर में जब सिद्धार्थ पैतीस वर्ष के हुए, तो एक दिन वह एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे साधना कर रहे थे।

कहा जाता है, इसी दिन उनकी यह साधना सफल हुई और उन्हें जीवन के परम तत्व बोधिसत्व की प्राप्ति हुई। इस प्रकार वह सिद्धार्थ से बुद्ध बने और पीपल का वृक्ष, बोधिवृक्ष कहलाया। सीधे-साधे लोकभाषा में अपने धर्म चक्र का प्रवर्तन करने के कारण भगवान बुद्ध की महिमाओं ने बड़ी ही सरलता से भक्तों को अपनी तरफ आकर्षित किया। जब भगवान धर्म, अहिंसा और शांति की वार्ता कहते, तो सभी उनमें मंत्रमुग्ध से हो जाते थे।

श्री हरि के नौवें अवतार, भगवान बुद्ध ने सम्पूर्ण संसार को ज्ञान का मार्ग प्रदान किया और उनकी शिक्षाओं से बौद्ध धर्म की स्थापना और उसका प्रचलन हुआ। कई प्राचीन और हिंदू धार्मिक ग्रंथों में भी उनके दिखाए मार्गों का वर्णन मिलता है। भगवान बुद्ध ने लोगो को सदैव अहिंसा के मार्ग पर चलने का उपदेश दिया था। उनके उपदेश में लोगो को अपने दुःख, उसके कारण और निवारण का अष्ठांगिक मार्ग प्राप्त हुआ।

इतना ही नहीं, भगवान बुद्ध ने अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में गायत्री मंत्र का भी खूब प्रचार प्रसार किया था। इसके अलावा, उनके बताए मध्यमार्ग, अंतर्दृष्टि और चार अध्याय सत्य के परिपालन से भी मानव जाति का साक्षात जीवन के परम तत्व से हुआ था।

कृष्ण अवतार

कृष्ण अवतार में दी भगवद्गीता की सीख

कृष्ण अवतार

गीता के एक श्लोक में प्रभु श्री विष्णु ने द्वापर युग में श्री कृष्ण अवतार का रहस्य बताया है। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से इस श्लोक में कहा था, “हे पार्थ! संसार में जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ जाता है, तब धर्म की पुर्नस्थापना हेतू, मैं इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूं।”

पौराणिक कथाओं के अनुसार जब द्वापर युग में क्षत्रियों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी और वह अपने बल के अहंकार में देवताओं को भी ललकारने लगे थे, तब प्रभु ने उनके इस अहंकार को खत्म करने के लिए माधव का अवतार लिया। इसके अलावा भगवान विष्णु के बैकुंठ के द्वारपालों, जय और विजय को उनके जीवन चक्र से मुक्ति दिलाने के लिए भी प्रभु ने अपना आठवां अवतार श्री कृष्ण के रूप में लिया था।

प्रभु श्री कृष्ण के अवतार में कईयों को मुक्ति दिलाने के साथ प्रेम, मित्रता और कर्म की शिक्षा दी है। उन्होंने इस रूप में राधा से प्रेम कर प्रेम बंधन को संसार में सबसे अहम माना तो वहीं महाभारत में कर्म के आधार पर लोगों श्रेष्ठ होने का मार्ग बताया।

उन्होंने महाभारत के समय अर्जुन का सारथी बन गीता का ज्ञान दिया। प्रभु ने कर्म के मार्ग पर चल धर्म की रक्षा को सर्वश्रेष्ठ बताया है। महाभारत में प्रभु ने एक सारथी का दायित्व निभा धर्म की रक्षा का उपदेश दिया, वहीं सुदामा से मित्रता निभा उन्होंने मित्र धर्म को सभी पारिवारिक बंधनों से ऊपर रखा।

कथानुसार, जब जय और विजय को ऋषि सनकादि से यह अभिशाप मिला कि अगले तीन जन्मों तक उन्हें राक्षस कुल में जन्म लेना होगा, तब उन दोनों ने ऋषि से मोक्ष प्राप्ति का पथ बताने का आग्रह किया था। सनकादि ने तब उन्हें कहा था कि उनके मोक्ष प्राप्ति के लिए स्वयं भगवान विष्णु पृथ्वी पर अवतरित होंगे।

इसके बाद, अपने पहले जन्म में हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष, दूसरे जन्म में रावण और कुंभकर्ण बनने के पश्चात, तीसरे जन्म में उन दोनों ने शिशुपाल और कंस के रूप में जन्म लिया था। तब नारायण ने भगवान कृष्ण के रूप में अवतार लेकर उन दोनों का वध करते हुए उन्हें जन्म चक्र से मुक्ति दिलाई थी।

मान्यता यह भी है कि भगवान श्रीकृष्ण के परमशत्रु कंस पूर्वजन्म में हिरण्यकश्यप थे। वहीं भागवत पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने स्वयं जय और विजय को शाप से मुक्ति के लिए वरदान दिया था कि जब भी तुम लोग राक्षस बन कर जन्म लोगे, तो तुम्हारी मृत्यु मेरे ही हाथो होगी और तुम्हारा उद्धार होगा।

अब जैसा की हम सब जानते हैं कि मथुरा के राजा दुराचारी कंस ने धरती पर जन्म के बाद से ही धरती पर हाहाकार मचा रखा था। उसके अत्याचार पूर्ण शासन का कष्ट, प्रजा सहित साधु-संत भी भोग रहे थे। दूसरी ओर, शिशुपाल जो पूर्वजन्म में हिरण्याक्ष था, वह भी धरती पर आ चुका था। इन दोनों को शाप के अनुसार, जीवन से मुक्ति प्रदान करने के लिए, भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया था।

एक अन्य मान्यता के अनुसार द्वापर युग में धरती महान योद्धाओं की शक्ति से दहल रही थी। इसके साथ ही, जनसंख्या का भार भी काफी हो गया था। अगर उस युग के योद्धाओं का अंत नहीं होता, तो धरती पर शक्ति का बहुत असंतुलन दिखाई देने लगता। अतः इसी शक्ति के संतुलन और नए युग के आरंभ के लिए श्री कृष्ण ने अपना अवतार धारण किया।

श्री कृष्ण अवतार से एक और रोचक कथा जुड़ी हुई है, जब स्वयं धरती ने प्रभु से परित्राण का अनुग्रह किया और श्री हरि ने अपना आठवां अवतार लिया था। इस कथा के अनुसार द्वापर युग में जब पृथ्वी पर पाप बहुत बढ़ने लगा और असुरों के इस अत्याचार से स्वयं धरती माता भी नहीं बच पा रही थी। तब उन्होंने सहसा एक गाय का रूप धारण किया और अपने उद्धार की आशा लेकर, प्रजापति ब्रह्मा के पास पहुंची। उनकी सारी व्यथा सुनने के बाद ब्रह्मा जी ने उन्हें अपने साथ भगवान विष्णु की शरण में चलने को कहा।

सभी देवताओं और पृथ्वी माता के साथ ब्रह्मा जी जब हरि धाम पहुंचे तो देखा कि भगवन निद्रा में लीन हैं। तब सभी ने उनकी स्तुति करना शुरू किया और इसके प्रभाव से उन्होंने अपनी आंखें खोली और ब्रह्मा जी से आने का कारण पूछा। तब धरती माता आगे आई और उन्होंने कहा, “हे प्रभु! मैं इस संसार में हो रहे पाप और अत्याचारों के बोझ तले दबी जा रहीं हूं। कृपया आप ही अब मेरा उद्धार करो भगवन!”

पृथ्वी माता की बातें सुनकर भगवान विष्णु ने उत्तर दिया, हे धरती! तुम चिंतित ना हो, मैं वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से अपना आठवां अवतार लूंगा और तुम्हें इन अत्याचारों से मुक्त कराउंगा।”

इसके साथ ही श्री हरि ने बाकी देवताओं से कहा, “तुम लोग सभी ब्रज भूमि जाओ और ग्वाल वंश में अपना शरीर धारण कर लो और मेरे आने की प्रतीक्षा करो।” इसके बाद प्रभु ने वसुदेव के आठवें पुत्र के रूप में जन्म लिया और इस धरती को कंस, चाणूर, पूतना, कालिया और ऐसे कई अत्याचारी असुरों से मुक्ति दिलाई।

मर्यादा पुरुषोत्तम 'राम'

क्यों हैं भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम ?

राम अवतार

सुंदर मनोहारी कान्ति एवं उससे भी मनोरम स्वभाव वाले प्रभु रघुवर वास्तव में ही सभी पुरुषों में उत्तम थे, तभी तो उनकी महिमा का वास उनके भक्तों के रोम-रोम में होता है। जैसा कि हमने आपको पहले भी बताया कि भगवान श्री विष्णु के हर अवतार के पीछे कुछ निर्दिष्ट उद्देश्य थे और धर्म की स्थापना के लिए जिनकी पूर्ति आवश्यक थी। ठीक इसी प्रकार श्री राम के रूप में प्रभु के सप्तम अवतार भी ऐसे ही कुछ उद्देश्यों के पालन हेतु इस धरती पर अवतरित हुए थे।

इस लेख में हम आपको उन्हीं उद्देश्यों के बारे में विस्तार से बता रहे हैं। श्री राम जन्म के उद्देश्य से जुड़ी कई किवंदन्तियां प्रचलित हैं। इनमें से एक उस समय की बात है, जब सनकादिक मुनि, श्री नारायण से मिलने के लिए बैकुंठ गए थे। तब वहां जय और विजय नाम के दो द्वारपाल पहरा दे रहे थे, जैसे ही उन्होंने सनकादिक मुनि को देखा, तो उनका मजाक उड़ाते हुए उन्हें रोक लिया। इस पर मुनि अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने जय और विजय को यह अभिशाप दे दिया कि वह दोनों आने वाले तीन जन्मों तक राक्षस कुल में जन्म लेंगे।

अभिशाप की बात सुनते ही जय और विजय रोने लगे और उन्हें अपनी भूल का पछतावा होने लगा। तब उन दोनों ने सनकादिक मुनि से प्रार्थना की कि वह अपना अभिशाप वापस ले लें। उस वक्त मुनि ने उनसे कहा, “मैं अपना दिया हुआ अभिशाप तो वापस नहीं ले सकता, लेकिन जब तुम दोनों इतनी क्षमा याचना कर रहे हो, तो मैं तुम्हें यह आशीर्वाद देता हूं कि इन तीनों जन्म में तुम्हें मोक्ष दिलाने स्वयं प्रभु श्री विष्णु ही आएंगे।”

कहा जाता है इसी अभिशाप के कारण जय और विजय ने अपना पहला जन्म हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में लिया। जिनका वध प्रभु श्री विष्णु ने अपने वराह और नरसिंह अवतार में किया। इसके बाद उनका जन्म, रावण और कुंभकर्ण के रूप में हुआ और उनके संहार के लिए श्री विष्णु राम अवतार में आये। इसके बाद, तीसरे एवं अंतिम जन्म में जय और विजय शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में जन्मे थे, जिनका संहार मधुसूदन ने किया था।

प्रभु श्री राम के अवतरित होने की एक कथा मनु और शतरूपा से भी जुड़ी हुई है। मान्यता है कि मनु और शतरुपा ने अपने कठोर तप से भगवान विष्णु को प्रसन्न किया था। इसके बाद जब प्रभु उनके समक्ष प्रकट हुए और उन दोनों से वरदान मांगने को कहा, तब उन्होंने प्रभु से यह वरदान मांगा कि शतरुपा के गर्भ से प्रभु के समान तेजमय एक संतान पैदा हो।

इस पर प्रभु ने उनसे कहा, “इस पृथ्वी पर मेरे समान कोई और नहीं है, लेकिन तुम दोनों की इच्छा का मान रखने के लिए मैं स्वयं ही आपकी गर्भ से जन्म लूंगा।” यहीं मनु और शतरुपा अपने अगले जन्म में राजा दशरथ और माता कौशल्या के रूप में पैदा हुए और उनके पुत्र के रूप में श्री हरि ने प्रभु राम का अवतार लिया था। प्रभु इस अवतार में वचन को निभाने के लिए किसी भी हद तक जाने की प्रेरणा देते हैं। उनका 14 साल का वनवास भी इसी से जुड़ा है। धर्म की स्थापना और पिता को दिए वचन के लिए उन्होंने 14 साल तक राजपाठ का त्याग कर वनवास में रहे। 

कहते हैं, प्रभु के श्री राम अवतार में आने का एक और देवर्षि नारद का दिया हुआ श्राप है। देवर्षि नारद को कामदेव को युद्ध में पराजित करने के बहुत अहंकार हो गया था। ऐसे में प्रभु श्री विष्णु भला अपने किसी भी भक्त के हृदय में अहंकार जैसे अवगुण का वास कैसे होने देते? इसलिए प्रभु ने नारद मुनि को अहंकार मुक्त करने की एक योजना बनाई।

जब नारद मुनि बैकुंठ से लौट रहे थे, तब उन्हें एक बड़ा सा सुंदर महल दिखाई पड़ा, जो बहुत सुसज्जित था। महल को देखते हुए नारद मुनि ने सोचा, “पहले तो कभी यह महल मैंने यहां नहीं देखा? एक बार चल कर देख ही लेता हूं कि क्या चल रहा है?” जैसे ही नारद वहां पहुंचे तो उन्होंने देखा, वहां एक अत्यंत सुंदर राजकुमारी के स्वयंवर की तैयारियां चल रही थी। उस सुंदर राजकुमारी पर जैसे ही नारद जी की नजर पड़ी, वह अपना सारा वैराग्य भूल गए और विवाह की इच्छा लिए भगवान विष्णु के पास पहुंचे।

तब विष्णु जी ने उनसे कहा, “देवर्षि, मैंने आपके रूप को निखार दिया है, अब वह कन्या अवश्य ही आपको ही चुनेगी।” प्रभु के इस आश्वासन से प्रसन्नचित्त होकर जब नारद मुनि वहां पहुंचे, तो कुछ अलग ही दृश्य देखने को मिला। उस कन्या ने नारद मुनि की ओर मुड़कर देखा भी नहीं और इस बात से देवर्षि अत्यंत ही दुखी हुए। जब उन्होंने पानी पीने के लिए जलाशय में अपना चेहरा देखा, तो उनकी शक्ल एक वानर जैसी थी। अब तो नारद जी अत्यंत क्रोधित हो गए और जैसे ही विष्णु भगवान के पास पहुंचे, तो उस कन्या को वहां देख पूरा माजरा ही समझ गए।

कहते हैं, यहीं वह समय था जब नारद मुनि ने भगवान विष्णु को अभिशाप दिया था कि एक युग में उनका ऐसा अवतार होगा, जिसे स्त्री वियोग सहन करना पड़ेगा और वानरों से सहायता लेनी पड़ेगी। सीत हरण, सीता त्याग और रावण वध प्रभु को दिए नारद मुनि के इसी अभिशाप का परिणाम माना गया है।

परशुराम क्यों है ब्राह्मणों का देवता ?

परशुराम क्यों है ब्राह्मणों का देवता ?

परशुराम अवतार

श्री हरि के छठे अवतार परमवीर प्रभु परशुराम को बताया गया है। जिन्होंने पृथ्वी पर क्षत्रिय राजाओं के बढ़ते अत्याचारों का नाश करने के लिए जन्म लिया था। कहते हैं कि परशुराम का जन्म महर्षि जमदग्नि और उनकी पत्नी रेणुका के यहां देवराज इंद्र के वरदान स्वरूप हुआ था। भगवान विष्णु ने अपना यह छठा अवतार त्रेता युग में ही लिया था, जिसे रामायण काल भी कहा जाता है।

पौराणिक वृत्तांतों के अनुसार, जब ब्राह्मण जमदग्नि ने पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन किया था, तब इस यज्ञ से संतुष्ट होकर इंद्र ने ऋषि भार्या रेणुका को यह वरदान दिया कि उनकी गर्भ से स्वयं परमतत्व का आविर्भाव होगा। कालांतर में वैसा ही हुआ और रेणुका की गर्भ से श्री हरि ने परशुराम के रूप में जन्म लिया। उनका मूल नाम राम ही था, परंतु उनसे प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें अपना परशु अस्त्र प्रदान किया था और तभी से उनका नाम परशुराम हो गया।

परशुराम बचपन से ही अत्यंत वीर योद्धा थे और उनका क्रोध भी अत्यंत गंभीर था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा, ऋषि विश्वामित्र एवं ऋचिक के पास हुई थी, मगर उन्हें वैष्णव मंत्र महर्षि कश्यप ने प्रदान किया था। परशुराम अस्त्रविद्या के ज्ञाता थे और महाबली भीम और दुर्योधन जैसे कई योद्धाओं को उन्होंने इस विद्या की शिक्षा भी दी थी। वहीं एक बार की बात है कि धरा पर हैहय वंश के क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार बढ़ने लगा, वह किसी भी ब्राह्मण के पास जाते और उनसे उनका सब कुछ छीन कर ले आते।

इन सब राजाओं में से सबसे धूर्त थे, राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन, जो कि बेहद अत्याचारी थे। एक बार राजा सहस्त्रबाहु जमदग्नि के आश्रम पहुंचे और वहां के सभी पेड़-पौधों को नष्ट करते हुए उनकी गायें हड़प लीं। जब इस बात का पता परशुराम को चला, तो क्रोध में आकर उन्होंने राजा का वध कर दिया। फिर क्या था, परशुराम के ऐसे भयंकर अवतार की बात सुनकर सहस्त्रबाहु के सभी पुत्र राज्य छोड़कर भाग खड़े हुए, लेकिन उनके पिता की हत्या का बदला लेने की अग्नि उन सभी के रोम-रोम में जल रही थी।

कुछ समय बाद, एक दिन परशुराम अपने बाकी भाइयों के साथ आश्रम के बाहर गए हुए थे। इस मौके का फायदा उठाते हुए, राजा सहस्त्रबाहु के पुत्रों ने उस आश्रम पर हमला करते हुए ऋषि जमदग्नि की हत्या कर दी। तब माता रेणुका अपने पति को इस हालत में देखकर मुमूर्ष हो गईं और जोर से रोने लगीं। परशुराम ने अपनी माता का क्रंदन आश्रम से कुछ दूरी पर ही सुन लिया था। वह जैसे ही आश्रम पहुंचे, अपने पिता को मृत देखकर क्रोध से उन्माद से हो गए। परशुराम ने तब अपना फरसा उठाया और उन क्षत्रिय पुत्रों का संहार करने निकल पड़े।

परशुराम ने पिता की मृत्यु को निमित्त बना कर अत्याचारी क्षत्रिय राजाओं का विनाश कर दिया। इस प्रकार, भृगुकुल में अवतार लेकर प्रभु ने पृथ्वी का बोझ बन चुके अत्याचारी राजाओं का इक्कीस बार संहार किया था। वहीं उन्होंने अपने पिता को फिर से जीवित कर दिया था और उनके पिता, सप्तर्षि मण्डल के सबसे अंतिम सितारे बन गए।

आगे चलकर परशुराम ने ऋषि अत्री की पत्नी अनुसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा एवं अपने प्रिय शिष्य, अकृतवण के सहयोग से एक विशाल नारी जागृति अभियान का संचालन भी किया। इसके अलावा, शिव पंचत्वरिंशनं स्तोत्र का सृजन भी भगवान परशुराम ने ही किया था। भगवान परशुराम को श्री हरि का आवेशवतार भी कहा जाता है।

परशुराम से संबंधित एक और कथा तब की है, जब भगवान अपने आराध्य महादेव के दर्शन हेतु कैलाश पहुंचे थे। वहां पहुंचते ही उनका साक्षात्, पार्वती पुत्र श्री गणेश से हुआ, जिन्होंने परशुराम को अंदर जाने से रोक दिया था।

इस पर जब परशुराम ने जबरदस्ती घुसने का प्रयास किया, तो इससे क्रोधित होकर भगवान गणेश ने उन्हें अपने सूंड में लपेट कर चारों दिशा में घुमाते हुए जमीन पर पटक दिया। इसके बाद, कोपित परशुराम ने अपने फरसे से गणेश भगवान का एक दांत काट दिया और तभी से भगवान एकदंत कहलाने लगे।

वामन अवतार

वामन अवतार में तोड़ा राजा बलि का घमंड

वामन अवतार

श्री विष्णु ने अपना पांचवां अवतार किस रूप में और क्यों लिया था? आज हम आपको इसके रोचक कथा के बारे में बताते हैं। कहते हैं कि श्री हरि ने अपना पांचवां अवतार एक वामन बालक के रूप में लिया था। वामन के रूप में अवतीर्ण होकर प्रभु ने एक ऐसा अद्भुत कार्य किया था कि सभी देवताएं उनके प्रति नतमस्तक हो गए थे। कहा जाता है कि श्री विष्णु का वामन अवतार उन्होंने भक्त प्रह्लाद के पौत्र राजा बलि के दर्प को चूर्ण करने के लिए भी लिया था।

जब देवताओं से युद्ध करते हुए असुरों को मृत व पराजित होना पड़ा, तब दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने अपनी शक्तियों से उन सभी को पुनः जीवित कर दिया था। मगर जीवित होने के पश्चात तो जैसे, असुरों के अत्याचार की सारी सीमाएं अतिक्रमित होने लगी। राजा बलि ने भी शुक्राचार्य की कृपा से अपना जीवन लाभ किया था, इसलिए वह भी उनकी सेवा में लग गए। इस दौरान, राजा बलि की सेवा से प्रसन्न होकर शुक्राचार्य ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया।

इधर, पौराणिक मान्यता के अनुसार, असुरों के हर दूसरे दिन देवताओं पर किए गए अत्याचारों से माता अदिति अत्यंत दुखी हो गईं थीं। उन्होंने अपनी यह व्यथा अपने स्वामी कश्यप ऋषि को सुनाते हुए कहा, “हे स्वामी! मेरे तो सभी पुत्र मारे-मारे फिरते हैं और उन्हें इस अवस्था में देखकर, मेरा हृदय क्रंदन करने लगता है।”

अपनी पत्नी की यह बात सुनकर, कश्यप ऋषि ने सोचा, इस व्यथा के समाधान के लिए तो अपना सर्वस्व प्रभु नारायण के चरणों में समर्पित कर, उनकी आराधना करना आवश्यक है। उन्होंने अदिति को भी ऐसा ही करने के लिए कहा। माता अदिति ने तब नारायण का कठोर तप किया और प्रभु भी माता के तप से प्रसन्न होकर उनके पुत्र के रूप में आविर्भूत हुए। अपने गर्भ से ऐसे चतुर्भुज प्रभु के अवतार से माता अदिति तो जैसे धन्य ही हो गईं।

वहीं प्रभु ने अवतरित होते ही वामन अवतार धारण कर लिया था। इसके बाद, महर्षि कश्यप ने अन्य ऋषियों के साथ मिलकर उस वामन ब्रह्मचारी का उपनयन संस्कार सम्पन्न किया।

इसके बाद, वामन ने अपने पिता से शुक्राचार्य द्वारा आयोजित राजा बलि के अश्वमेध यज्ञ में जाने की आज्ञा ली। यह राजा बलि का अंतिम अश्वमेध यज्ञ था। वामन जैसे ही उस यज्ञ में पहुंचे राजा बलि ने उन्हें देखते ही उनका आदर सत्कार किया और उनसे दान मांगने का आग्रह किया। इस पर वामन ने राजा बलि से कहा, “हे राजन! आपके कुल की शूरता व उदारता जगजाहिर है। मुझे तो बस अपने पदों के समान तीन पद जमीन चाहिए।”

राजा बलि उन्हें यह दान देने ही वाले थे, तभी शुक्राचार्य ने उन्हें चेताया, “यह अवश्य ही विष्णु हैं। इनके छलावे में आ गए, तो तुम्हारा सर्वस्व चला जाएगा।” परंतु राजा बलि अपनी बात पर स्थिर रहे। उन्होंने वामन को तीन पद जमीन देने का निर्णय कर लिया। राजा बलि की यह बात सुनते ही वमानवतार श्री विष्णु ने अपना शरीर बड़ा कर लिया और प्रथम दो पदों में ही उन्होंने स्वर्गलोक और धरती को अपने नाम कर लिया।

वामन के चरण पड़ने से ब्रह्मांड का आवरण थोड़ा उखर सा गया था एवं इसी स्थान से, ब्रह्मद्रव बह आया था जो बाद में जाकर मां गंगा बनीं। अब वामन ने बलि से पूछा, “राजन! तीसरा पद रखने का स्थान कहां है?” कोई दूसरा स्थान शेष ना रह जाने के कारण बलि ने प्रभु से कहा, कृपया आप अपना तीसरा पद मेरे शीश पर धारण करें।” वामन ने वैसा ही किया और इसके साथ ही राजा बलि, गरुड़ द्वारा बांध लिए गए। तब वमानवतार ने राजा बलि से कहा, “राजन! अगले मन्वन्तर में आप इंद्र बनेंगे, तब तक आप अपने परिवार और साथियों के साथ सुतल में वास करें।”

प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए, राजा बलि प्रह्लाद समेत सभी के साथ सुतल चले गए और प्रभु का आदेश पाकर, शुक्राचार्य ने उस यज्ञ को पूरा किया। इसके पश्चात, ब्रह्मा ने वामन को उपेन्द्र पद प्रदान किया और वह इंद्र के अधीक्षक बन कर अमरावती में स्थापित हो गए।

नरसिंह अवतार

भक्त प्रल्हाद के लिए लिया नरसिंह अवतार

भगवान श्री विष्णु के दशावतारों में चौथा अवतार नरसिंह यानी नृसिंह अवतार है। श्री मंदिर पर आज हम आपको भगवान विष्णु के इसी चौथे अवतार के बारे में बता रहे हैं। अपने परम भक्त प्रह्लाद को उसी के पिता हिरण्यकश्यप के अत्याचारों से बचाने के लिए प्रभु ने यह अवतार लिया था। प्रभु के इस अवतार और हिरण्यकश्यप के वध के पीछे एक अत्यंत मनोहारी कथा है। जिसके बारे में आज हम आपको बता रहे हैं।

जब भगवान विष्णु ने अपने वराह अवतार में दैत्य हिरण्याक्ष का वध कर दिया, तो उसके भाई हिरण्यकश्यप के क्रोध ने सारी सीमाएं लांघ दी। उसने जैसे नारायण से जीवन भर की शत्रुता करने की ठान ली हो। इसके बाद, हिरण्यकश्यप ने मध्य जल में ब्रह्मा का कठोर तप कर उनसे अजेयता और अमरत्व का यह वरदान प्राप्त किया कि उन्हें कोई भी मानव आकाश या पृथ्वी पर पराजित नहीं कर पाएगा। इसके बाद उसने देवताओं को विरक्त करना शुरू कर दिया। देवता असहाय हो गए और आखिरकार उन्हें स्वर्गलोक का त्याग करना पड़ा।

इधर, कालांतर में हिरण्यकश्यप और उसकी पत्नी कयाधु को प्रह्लाद नाम का एक पुत्र हुआ। यह बालक श्री हरि का परम भक्त था और इसे हरिभक्ति का सार अपनी माता से ही प्राप्त हुआ था। हिरण्यकश्यप इस बात से बेहद चिंतित हो गए कि अपने पुत्र के इस बढ़ते हरि भक्ति को कैसे रोका जाए। इसलिए उसने प्रह्लाद को दैत्य गुरु शुक्राचार्य के गुरुकुल भेज दिया, परंतु वहां जाकर दैत्य शिक्षा लेने के बजाय प्रह्लाद ने अपने साथियों को नारायण की कृपा का बखान करना आरंभ किया।

अंततः जब प्रह्लाद शिक्षा सम्पूर्ण कर अपने पिता के पास पहुंचा, तो हिरण्यकश्यप ने उससे पूछा, “बताओ पुत्र, गुरुकुल में तुमने क्या शिक्षा प्राप्त की?” इस पर प्रह्लाद ने उत्तर दिया, “पिताश्री! मैंने तो अब तक बस यही शिक्षा प्राप्त की है कि हमारे जीवन का एकमेव अद्वितीय सार श्री हरि ही हैं। मेरा आग्रह है, कि आप भी दुराचार का पथ त्याग कर हरि भक्ति का पथ अपना लें।”

अपने पुत्र के मुख से ऐसी बातें सुनकर हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोधित हो गया और उसने अपने सेवकों को उसे मार डालने के लिए कहा, लेकिन कहते हैं ना, जिसको प्रभु का आशीष प्राप्त हो, उसे भला मृत्यु भी कहां छू पाती है।

ठीक इसी प्रकार प्रह्लाद को मार डालने के सैकड़ों प्रयासों के बाद भी कोई उसका बाल तक बांका नहीं कर पाया। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका ने भी अपने भतीजे को मारने का षड्यन्त्र बनाया, लेकिन इस षड्यन्त्र में वह अपने ही प्राण गंवा बैठी। कोई दूसरा चारा ना देखते हुए तब हिरण्यकश्यप ने स्वयं ही प्रह्लाद को मारने का निर्णय कर लिया और प्रह्लाद को दरबार में बुलाया गया।

प्रह्लाद के दरबार में आते ही हिरण्यकश्यप ने उससे पूछा, “क्यों रे प्रह्लाद? क्या तेरा विष्णु हर जगह उपस्थित होता है?” प्रह्लाद ने बड़ी ही नम्रता से उत्तर देते हुए कहा, “हाँ पिताश्री! भगवान विष्णु तो सर्वत्र हैं, सर्वव्यापक हैं, वह हर जगह समाए हुए हैं।”

पुत्र के इस उत्तर को सुनकर क्रोध से तमतमाता चेहरा लिए उसने फिर उससे पूछा, “क्या तेरे विष्णु इस खंभे में मौजूद हैं?” प्रह्लाद ने उत्तर दिया, “अवश्य! वह इस खंभे में भी समाहित हैं।” अब हिरण्यकश्यप ने अपने पहरियों को प्रह्लाद को उस खंभे से बांध देने के लिए कहा और उसे मारने के लिए आगे बढ़ने लगे। प्रह्लाद ने भी तब श्री हरि का नाम जपना आरंभ कर दिया।

हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद की ओर बढ़ते हुए कहा, “अगर तेरे विष्णु इस खंभे में भी मौजूद हैं, तो आकर तेरी रक्षा करें।” बस इतना कहना था कि सहसा उस खंभे में दरार पड़ने लगी और अचानक से उस खंभे में से प्रभु के नरसिंह अवतार का आगमन हुआ।

इसके बाद भगवान नरसिंह ने हिरण्यकश्यप को निश्चेष्ट कर अपनी जंघा पर लेटा दिया और कहने लगे, “देख हिरण्यकश्यप! मैं ना मानव हूं और ना तू जमीन पर है और ना ही आसमान में। अब तेरा अंतिम समय आ गया है।” इतना कहते ही, प्रभु ने हिरण्यकश्यप का संहार करते हुए अपने परम भक्त प्रह्लाद की रक्षा की।

अगर ईश्वर के प्रति हमारी भक्ति निस्वार्थ एवं सच्ची हो तो किसी भी अवस्था में प्रभु हमारे लिए अवश्य कोई पथ प्रदर्शित करते हैं।

वराह अवतार

वराह अवतार में किया पृथ्वी का उद्धार

वराह अवतार

दशावतार सीरिज के पहले अध्याय में हमने आपको श्री हरी के कूर्म अवतार के बारे में बताया। उसी प्रकार इस अध्याय में हम आपको श्री नारायण के तृतीय अवतार यानी वराह अवतार की कहानी बता रहे हैं। ऐसा कहा जाता है कि जगतपालक भगवान श्री विष्णु से प्रेम करना और बैर रखना दोनों ही मंगलप्रद होता है। जो भी प्रभु से निस्वार्थ प्रेम करता है, उसे तो बैकुंठ की प्राप्ति होती ही है। मगर जो प्रभु से शत्रुता करने का दुस्साहस दिखाता है, प्रभु उस पर भी भगवान अपनी दया की दृष्टि करते हुए उसे विष्णुलोक में जाने का सौभाग्य प्रदान करते हैं।

तभी तो क्या खूब कहा गया है कि, श्रीहरि मनुष्य हृदय की समस्त भावनाओं से परे हैं। भगवान श्री विष्णु के दशावतारों में से उनका तीसरा अवतार भी ऐसी ही एक रोचक कथा बताता है | हिरण्याक्ष नामक एक दश्यू के अत्याचारों से पृथ्वी को मुक्ति दिलाने के लिए प्रभु ने वराह रूप में अवतार लिया था।

आज हम आपको इसी कथा के बारे में बताने जा रहे हैं। जब कश्यप ऋषि की पत्नी दिती की गर्भ से हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप नाम के दो जुड़वां शिशुओं ने जन्म लिया, तब समस्त पृथ्वी जैसे एक नकारात्मक ऊर्जा से भर गई। प्रकृति का हर कण जैसे यह दर्शाने लगा कि इन दो दैत्यों के अत्याचार से आगामी दिनों में पृथ्वी बहुत कंपित होगी।

कहा जाता है, कि जो दैत्य पैदा होने के साथ ही बड़े हो जाते हैं, उनके उत्पात की कोई सीमा नहीं होती। यह दो जुड़वां भाई भी कुछ इसी प्रकार बड़े हो गए थे। दोनों भाइयों ने मिलकर, प्रजापति ब्रह्मा का कठोर तप किया और उनसे किसी भी मानव शरीर से मृत्यु ना प्राप्त करने का वरदान मांग लिया। बस फिर क्या था, ब्रह्मा से अजेयता व अमरता का वरदान प्राप्त कर, दोनों दैत्यों की स्वेच्छाचारिता और उद्दंडता की जैसे सभी सीमाएं खत्म हो गईं।

हिरण्याक्ष ने अब तीनों लोकों में विजय प्राप्त करने का निर्णय कर लिया और गदा लेकर इंद्रलोक की ओर चल पड़ा। सभी देवताओं को जब इस बात की सूचना मिली, तब वह सब इंद्रलोक छोड़ कर भाग गए। इंद्रलोक में किसी को ना पाकर, हिरण्याक्ष तब वरुण देव की नगरी विभावरी की ओर चला। वहां जाकर उसने वरुण देव को युद्ध के लिए ललकारा, वरुण देव अत्यंत क्रोधित हुए, लेकिन उन्होंने उस क्रोध को मन में दबाते हुए हिरण्याक्ष से कहा, आप इतने वीर योद्धा, मुझमें आपसे युद्ध करने की क्षमता कहां है? इस संसार में अगर किसी में आप से युद्ध करने की क्षमता है, तो वह श्री विष्णु हैं। आप उन्हीं के पास जाएं।”

वरुण देव की बात सुनकर, श्री हरि की खोज में हिरण्याक्ष, देवर्षि नारद के पास पहुंचा और तब देवर्षि ने उसे बताया कि श्री हरि अभी अपने वराह रूप में पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिए गए हुए हैं। नारद की बात सुन, हिरण्याक्ष रसातल पहुंचा तो उसने देखा कि एक वराह अपने दांतों पर पृथ्वी को उठाए लिए जा रहा है।

ऐसा विस्मयकारी दृश्य देख कर हिरण्याक्ष मन ही मन सोचने लगा कि कहीं यह वराह असल में विष्णु तो नहीं? सहसा उसने उस वराह से कहा, “अरे जंगली पशु! तू जल में कहां से आ गया है? मूर्ख पशु! तू इस पृथ्वी को कहां लिए जा रहा है? इसे तो ब्रह्मा जी ने हमें दे दिया है। तू मेरे रहते इस पृथ्वी को रसातल से नहीं ले जा सकता। तू दैत्य और दानवों का शत्रु है, इसलिये आज मैं तेरा वध कर डालूंगा।”

इसके बाद हिरण्याक्ष ने प्रभु से और भी कई तीखे शब्द कहे, लेकिन प्रभु अपने पथ से टस से मस न हुए। हिरण्याक्ष ने तब फिर कहा, अरे विष्णु! तू इतना कायर क्यों है, मैंने तुझसे इतने कटु शब्द कहे, फिर भी तुम मुझसे युद्ध नहीं कर रहा।”

इतना कुछ सुनकर भी श्री हरि का ध्यान हिरण्याक्ष पर नहीं गया। एक बार पृथ्वी को अपने स्थान में स्थापित कर देने के पश्चात श्री विष्णु की नजर हिरण्याक्ष पर पड़ी। उन्होंने हिरण्याक्ष से कहा, “तुम तो अत्यंत बलवान हो। बलवान लोग प्रलाप नहीं करते, बल्कि कार्य करके दिखाते हैं। तुम इतनी बातें क्यों कर रहे हो? आओ मुझसे युद्ध करो।”

यह सुनते ही जैसे हिरण्याक्ष का खून खौल गया और वह भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। प्रभु बड़ी आसानी से उस असुर के सभी शस्त्रों को नष्ट करते चले जा रहे थे। इसके बाद हिरण्याक्ष त्रिशूल लेकर विष्णु की ओर दौड़ पड़ा और प्रभु ने तब सुदर्शन चक्र का आह्वान किया।

सुदर्शन चक्र के प्रकट होते ही, भगवान विष्णु ने उससे हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और इसके पश्चात उसके कानों पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। यह थप्पड़ इतना तेज था कि हिरण्याक्ष की आंखें बाहर निकल आईं और वह निश्चेष्ट होते हुए जमीन पर धराशायी हो गया। इसके बाद उसी सुदर्शन चक्र से श्री हरि ने हिरण्याक्ष का वध करते हुए धरती पर उसके अत्याचारों पर सदा के लिए विराम लगा दिया।

भगवान विष्णु के हाथों मारे जाने के कारण हिरण्याक्ष बैकुंठ चला गया और वहां के द्वार प्रहरी के रूप में अपना जीवन व्यतीत करने लगा।

इधर, अपने दांतों से जल पर पृथ्वी को स्थापित और हिरण्याक्ष का वध करने के पश्चात प्रभु के वराहावतार भी अंतर्ध्यान हो गए।

मत्स्य अवतार

क्या मत्स्य अवतार थी सतयुग की शुरुआत?

भगवान विष्णु के दशावतारों के इस सीरीज में पहले भाग में हम आपको उनके मत्स्य अवतार के बारे में बताने जा रहे हैं। प्रभु ने सतयुग में मत्स्य अवतार के रूप में पृथ्वी पर धर्म की पुनः स्थापना की थी। पृथ्वी को घोर प्रलय से बचाने के लिए प्रभु का इस रूप में अवतरण हुआ था। मत्स्य का अर्थ है मछली। सतयुग में प्रभु ने सृष्टि की रक्षा के लिए मछली का रूप धारण किया था।

इस अवतार के पीछे की पौराणिक कथा के अनुसार एक बार द्रविड़ देश के राजा, सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान करने गए थे। स्नान पूर्ण करने के पश्चात जब राजन अंजली में जल भर कर तर्पण करने लगे, तब उन्होंने देखा कि उनकी अंजली के जल में एक छोटी सी मछली भी आ गई है।

तब उन्होंने उस मछली को नदी के जल में बहा देने का मन बनाया, परंतु जैसे ही वह ऐसा करने लगे अचानक से वह मछली बोली, “हे राजन! मुझे नदी में कोई कोई बड़ा जीव मारकर खा जाएगा। कृपया मुझे अपने साथ ले चलें।” मछली की विनती सुन सत्यव्रत को उस पर दया आई और वह उसे अपने साथ घर ले आए और वहां उसे एक छोटे से कमंडल में रख दिया |

लेकिन एक रात में ही उस मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि वह उस कमंडल में समा नहीं पा रही थी। तब राजा ने उसे थोड़े और बड़े पात्र में डाल दिया, लेकिन फिर मछली का शरीर उस पात्र से बड़ा हो गया। अब राजन रोज उस मछली को एक नए बड़े पात्र में रखते और मछली के शरीर वृद्धि का सिलसिला जारी रहता।

अंततः एक दिन राजन ने उसे सरोवर में छोड़ आना ही उचित समझा, लेकिन वह सरोवर भी अब उस मछली के शरीर के सामने छोटा पड़ गया। यह चमत्कारी घटना देखकर राजा सत्यव्रत समझ गए कि यह मछली कोई साधारण मछली नहीं है और तब उन्होंने हाथ जोड़कर उस मछली से अपना वास्तविक स्वरूप दिखाने को कहा |

तब राजा सत्यव्रत के सामने भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और प्रभु ने बताया कि कैसे एक दैत्य ने प्रजापति ब्रह्मा की असावधानी का लाभ उठाते हुए वेदों को चुराकर जल में डाल दिया है। इसके कारण समस्त पृथ्वी पर अज्ञान का अंधकार फैला हुआ है। प्रभु ने यह भी बताया कि इस दैत्य हयग्रीव को मारने के लिए ही उन्होंने मत्स्य का रूप धारण किया है।

परमपिता ने सत्यव्रत से कहा, “आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्र उमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। तब आपके पास एक नाव पहुंचेगी जिस पर आप सभी अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्त ऋषियों के साथ उस नाव पर बैठ जाइएगा। मैं उसी समय आपको पुनः दर्शन दूंगा और आपको आत्मतत्त्व का ज्ञान प्रदान करूंगा।"

बस फिर क्या था, राजा सत्यव्रत उसी दिन से श्री हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा और समुद्र भी उमड़कर अपनी सीमाओं से बाहर बहने लगा। इसके साथ ही, भयानक वृष्टि होने लगी एवं थोड़ी ही देर में सारी पृथ्वी पर जल ही जल हो गया। संपूर्ण पृथ्वी जल में समा गई।

उसी समय राजा को एक नाव दिखाई पड़ी और बिना कोई विलंब किए सत्यव्रत सप्त ऋषियों के साथ उस नाव पर बैठ गए। उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए। इसके बाद, वह नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्त कहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था।

सहसा मत्स्य रूपी भगवान प्रलय के सागर में दिखाई पड़े। सत्यव्रत और सप्त ऋषि गण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करने लगे, “हे प्रभु! आप ही सृष्टि के आदि हैं, आप ही पालक हैं और आप ही रक्षक हैं। दया करके हमें अपनी शरण में लीजिए, हमारी रक्षा कीजिए।” सत्यव्रत और सप्त ऋषियों की प्रार्थना पर मत्स्य रूपी भगवान प्रसन्न हो उठे और उन्होंने अपने वचन के अनुसार सत्यव्रत को आत्मज्ञान प्रदान किया।

प्रभु ने बताया- “सभी प्राणियों में मैं ही निवास करता हूं। न कोई ऊंचा है और न ही नीचा। सभी प्राणी एक समान हैं। सत्यव्रत यह जगत नश्वर है। इस नश्वर जगत में मेरे अतिरिक्त कहीं और कुछ भी नहीं है। जो प्राणी मुझे सब में देखता हुआ अपना जीवन व्यतीत करता है, वह अंत में मुझमें ही समा जाता है।”

मत्स्य रूपी श्री हरि से आत्मज्ञान पाकर सत्यव्रत का जीवन धन्य हो उठा। वह जीते जी ही जीवन से मुक्त हो गए। इस प्रलय का प्रकोप शांत होने पर मत्स्य रूपी भगवान ने हयग्रीव दैत्य का वध कर समस्त वेदों को उद्धार करते हुए उन्हें ब्रह्मा को दे दिया।

क्या है समुद्र मंथन के पीछे की कहानी ?

क्या है समुद्र मंथन के पीछे की कहानी ?


कूर्म अवतार

पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन को सफलतापूर्वक पूर्ण करने के लिए भगवान श्री विष्णु ने अपना दूसरा अवतार कूर्म रूप में लिया था। कूर्म अवतार को ‘कच्छप’ अवतार भी कहते हैं। कूर्म अवतार में ही भगवान विष्णु ने समुद्र मंथन में मंदार पर्वत को अपने कवच पर संभाला था।

विष्णु पुराण के अनुसार एक बार भगवान शंकर के अंशावतार दुर्वासा ऋषि पृथ्वीतल पर विचर कर रहे थे। घूमते-घूमते उन्होंने एक विद्दाधरी के हाथ में पारिजात पुष्प की एक दिव्य माला देखी। जिसके सुगंध दूर-दूर तक फैल रही थी। उसकी सुगंध से मोहित होकर ऋषि दुर्वासा ने उस सुंदरी से वह माला मांगी। जिसके बाद विद्दाधरनी ने आदरपूर्वक प्रणाम करते हुए वह माला ऋषि दुर्वासा को दे दी। उस माला को ऋषि दुर्वासा अपने मस्तक पर लेकर आगे चलने लगे।

इसी समय उन्होंने ऐरावत पर देवताओं के साथ देवराज इंद्र को आते देखा। उन्हें देखकर ऋषि दुर्वासा ने उस दिव्य माला को अपने सिर से उतार देवरराज इंद्र के ऊपर फेंका। जिसे देवराज इंद्र ने ऐरावत के मस्तक पर डाल दी। ऐरावत ने दिव्य माला को अपने अपने मस्तक से उतारकर भूमि पर फेंक दिया।

इसे देख ऋषि दुर्वासा क्रोधित हो गए और इंद्र पर गुस्सा करते हुए कहा, हे देवराज अपने ऐश्वर्य के नशे चूर होकर आपने मेरी दी हुई माला का आदर तक नहीं किया। इसलिए मैं श्राप देता हूं कि तेरा त्रिलोकीका वैभव नष्ट हो जाएगा।

उनके श्राप से सभी देवताओं ने अपनी शक्ति खो दी। श्राप के कारण देवराज इंद्र के प्रिय ऐरावत भी उनसे दूर हो गया। ऋषि दुर्वासा के श्राप से तीनों लोकों को माता लक्ष्मी से वंचित होना पड़ गया, तिन्हो लोकों का वैभव भी लुप्त हो गया। जिसके बाद सभी देवता भगवान ब्रह्मा के पास गए और कुछ उपाय सुझाने को कहा। जिसपर ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं को भगवान विष्णु के पास जाने को कहा।

भगवान ब्रह्मा की सलाह पर सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। जहां भगवान विष्णु ने उन्हें समुद्र मंथन करने को कहा। भगवान विष्णु ने बताया कि समुद्र मंथन से जो अमृत मिलेगी, उससे देवों की शक्ती वापस आ जाएगी और वे अमर हो जाएंगे।

प्रभु श्री हरि ने विश्व के पुनः निर्माण और माता लक्ष्मी के पुनरुद्धार के लिए समुद्र मंथन का मार्ग सुझाया, लेकिन सभी देवता इसे अकेले कर पाने में समर्थ नहीं थे। जिसके बाद इसके लिए असुरों को भी इस कार्य में सम्मिलित कराने की योजना बनाई गई और प्रभु ने देवराज इंद्र को यह कार्य सौंपा कि वह असुरों के पास जाकर उन्हें अमृत का लोभ दिखाकर इस कार्य के लिए मनाएं। तब देवराज भी इस कार्य में देवताओं की सहायता के लिए तैयार हो गए।

यह पहला ऐसा कार्य था, जिसे देव और दानव साथ में करने वाले थे। इससे पहले, इन दोनों समूहों में सिर्फ घमासान युद्ध ही देखने को मिला था। मगर समुद्र का मंथन इतना सहज नहीं था, इसलिए श्री विष्णु के आज्ञ से मंदराचल पर्वत को समुद्र के बीचों-बीच मथनी बनाकर खड़ा कर दिया। परंतु अब भी समुद्र को मथने के लिए किसी लंबी रस्सी का उपाय नहीं सूझ रहा था, तब प्रभु ने देवाधिदेव महादेव से उनके गले के नाग वासुकि को इस कार्य के लिए देने का आग्रह किया। भगवान शंकरजीने नाग वासुकि को इस काम के लिए सौंप दिया।

अब दोनों समूहों में इस बात को लेकर मतभेद होने लगा कि इस रस्सी रूपी नाग का कौन सा हिस्सा किस समूह के पाले में आएगा। इसे लेकर जब असुरों ने पूछा कि कौन सा हिस्सा मजबूत है, तो उन्होंने मुख के हिस्से को लेने के लिए कहा। इसके बाद प्रभु के कथन अनुसार असुरों ने भी मजबूत हिस्से को ही लेने का निर्णय किया और देवताओं को वासुकि का पिछला हिस्सा मिला।

समुद्र मंथन का कार्य जैसे ही प्रारंभ हुआ तो सभी ने देखा कि मंदराचल पर्वत धीरे-धीरे जल में समाने लगा है क्योंकि उसका भार उठाने के लिए कोई मजबूत वस्तु वहां मौजूद नहीं था। सब सोच में पड़ गए कि अब समुद्र मंथन कैसे पूरा होगा।

तब तारणहार प्रभु ने स्वयं कच्छप का अवतार धारण करते हुए उस मंदार पर्वत को अपनी पीठ पर उठा लिया। कहा जाता है कि प्रभु के इस कूर्म अवतार में उनकी पीठ का हिस्सा एक लाख योजन से भी ज्यादा था। उन्होंने मंदार पर्वत को तब तक उठाए रखा, जब तक समुद्र मंथन पूरा नहीं हुआ।

समुद्र मंथन में सबसे पहले हलाहल निकला था, जिसे महादेव ने पी लिया था, क्योंकि उनके अलावा इस संसार में कोई भी इसको अपने शरीर में धारण करने की क्षमता नहीं रखता था। हलाहल को पीते ही, महाकाल का कंठ नीला पड़ गया और तभी से उन्हें नीलकंठ के नाम से भी जाना जाने लगा। हलाहल के बाद समुद्र में से कल्पवृक्ष, ऐरावत हाथी, कामधेनु गाय, कौस्तुभ मणि जैसे रत्नों सहित तेरह और रत्न और अप्सराएं बाहर आए।

अंत में समुद्र में से माता लक्ष्मी का भी उदय हुआ और उनके आते ही सभी देवताओं की श्री वृद्धि हो गई। तब सभी देवताओं ने नतमस्तक होकर प्रभु के कुर्मावतार को शत-शत नमन करते हुए उनका गुणगान किया और इस प्रकार भगवान श्री विष्णु ने एक बार फिर धरती पर विश्व का निर्माण किया।

Saturday, 7 May 2022

गंगा सप्तमी की पूजा विधि 7 मई 2022, शनिवार

गंगा सप्तमी की पूजा विधि

7 मई 2022, शनिवार

कहा जाता है कि गंगा सप्तमी के दिन मॉं गंगा की विधि विधान से पूजा अर्चना करने और गंगा स्नान करने से व्यक्ति के जीवन में अत्यधिक सुखद परिणामों की प्राप्ति होती है। मॉं गंगा पर आस्था रखने वाले लोग इस दिन उपवास रख विधि पूर्वक उनकी आराधना करते हैं और अपने जीवन में सुख समृद्धि की प्रार्थना करते हैं। मान्यता है कि गंगा सप्तमी के दिन मॉं गंगा की उपासना करने से मनुष्य को उसके पापों से मुक्ति मिलती है। साथ ही मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। इसके अलावा मॉं गंगा की कृपा हमेशा उन पर बनी रहती है।

आइए जानते हैं कैसे इस दिन करें मां गंगा की आराधना-

  • गंगा सप्तमी के पावन दिन सूर्योदय से पहले उठकर गंगा नदी में स्नान करना शुभ माना जाता है। लेकिन अगर गंगा नदी में स्नान करना संभव ना हो तो सूर्योदय से पहले उठकर घर के पानी में गंगा जल की कुछ बूंदों को मिलाकर स्नान आदि कर लें।

  • इसके बाद घर के मंदिर में उत्तर दिशा में एक चौकी रखें और उसपर लाल रंग का कपड़ा बिछा लें।

  • फिर उसपर मॉं गंगा की मूर्ति या तस्वीर के साथ कलश की भी स्थापना करें।

  • कलश में रोली,चावल, गंगाजल, शहद, चीनी, गाय का दूध, इत्र इन सभी सामग्रियों को भर लें।

  • कलश के ऊपर अशोक के पांच पत्ते को लगाकर नारियल रखें। नारियल पर कलावा भी बांधें । फिर मॉं गंगा की प्रतिमा पर लाल चंदन से तिलक करें और कनेर का फूल मॉं के चरणों में अर्पित करें।

  • तत्पश्चात मॉं गंगा को प्रसाद में फल के साथ गुड़ का भोग भी लगाएं।

  • फिर देवी गंगा की व्रत कथा सुनें। अंत में उनकी आरती उतारें।

  • आरती के बाद, 11 या 21 बार “ॐ नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नमः”, इस मंत्र का उच्चारण करें।

  • कहा जाता है कि गंगा सप्तमी के दिन मॉं गंगा के मंत्र का जाप करना विशेष फलदायी होता है।

तो भक्तों श्री मंदिर के इस लेख में आपने जाना की गंगा सप्तमी के दिन देवी गंगा की आराधना कैसे करें। इसके अलावा अगर आप गंगा सप्तमी की कथा सुनना चाहते हैं तो उससे संबंधित लेख आप श्री मंदिर के ऐप पर जाकर देख सकते हैं।

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Sunday, 1 May 2022

अक्षय तृतीया 2022 पर बन रहे हैं राजयोग

अक्षय तृतीया 2022 पर बन रहे हैं राजयोग 

अक्षय तृतीया के दिन भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है. साथ ही इस दिन विवाह, गृह प्रवेश, खरीदारी के लिए अबूझ मुहूर्त भी होता है. इस साल 3 मई, मंगलवार यानी कि कल ये पर्व मनाया जाएगा. यह वैशाख महीने के शुक्‍ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है. इस बार अक्षय तृतीया पर 3 राजयोग बनने के कारण यह और भी खास हो गया है. 

पूजा, स्‍नान-दान का है खास महत्‍व 

अक्षय का मतलब है कि जिसका क्षय न हो. मान्‍यता है कि अक्षय तृतीया के दिन किए गए कामों का क्षय नहीं होता है या इस दिन किए गए कर्म बहुत ज्‍यादा लाभ देते हैं. इसलिए इस दिन पवित्र नदियों में स्‍नान करने, पूजा-पाठ करने, दान करने, खरीदारी करने का बहुत महत्‍व है. इस दिन भगवान विष्‍णु और माता लक्ष्‍मी की पूजा करते हैं ताकि हमेशा उनकी कृपा बनी रहे. साथ ही सोना-चांदी, घर-गाड़ी जैसी कीमती चीजें खरीदते हैं ताकि घर में हमेशा सुख-समृद्धि बनी रहे. 

अक्षय तृतीया पर बन रहे हैं राजयोग 

इस साल 3 मई, अक्षय तृतीया पर ग्रहों की स्थिति बहुत खास रहने वाली है, जिसके कारण इस दिन मालव्य राजयोग, हंस राजयोग और शश राजयोग बन रहे हैं. अक्षय तृतीया पर इन राजयोगों का बनना बहुत शुभ है. इन राजयोग में कोई भी शुभ काम या मांगलिक काम करना बहुत अच्‍छा फल देगा. खरीदारी करने के लिए भी यह स्थितियां बहुत ही शुभ हैं. 

- अक्षय तृतीया पर पूजा के लिए शुभ मुहूर्त सुबह 05:39 बजे से दोपहर के 12:18 बजे तक है.

आचार्य सुहास रोकडे 

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